Saturday, February 18, 2012

टूटा  पर टूटा  नहीं टूट कर,गिरा पर गिरा नहीं गिर कर 
था में उस डाली का पत्ता ,जिसे बना ना  सका अपनी सत्ता 
हो गया जुदा अपनों से ,सायद जिन्दा रहूँ उनके सपनों से 
अभी तो था में बच्चा था नेक और सच्चा, 
बहा ले गया हवा का वो झोंका 
था मजबूर कुदरत  के इस फैसले से,कर दिया यतीम अपनों से 
टूटा पर टूटा नहीं ..................................................................
कहाँ थी नसीब में अपनों की खुशियाँ ,था बस गम अब यार हमारा 
बेपरवाह चलता रहा ना  मिला साथ कोई अपना हमारा
बनाना चाह अपनी भी थोड़ी जगह इस में, पर न था पता बदलते हैं लोग भी इस संसार में 
बनाया पर बना ना सका जगह इस संसार में 
टूटा पर टूटा नहीं.....................................................................
देख इस घनी आबादी को,तरश गया दो गज जमीन को 
बनाना था आसिया भी अपना,सायद देखा मैंने झूठा सपना 
जानना चाहा क्यूँ  जुड़ा इस संसार से ,होती है जब बगाबत इस संसार से 
कुदरत ने भी माना हो गई खता जो कर दिया जुदा तुझे अपनों से 
टूटा पर टूटा नहीं टूट कर,गिरा पर गिरा नहीं गिर कर
था में उस डाली का पत्ता ,जिसे बना ना सका अपनी सत्ता II
  

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